शास्त्री,
द्वितीय वर्ष, द्वितीय अधिसत्र
हिंदी
साहित्य का इतिहास
हिंदी
की गद्य विधाओं की उत्पत्ति और विकास
(कहानी,
नाटक, उपन्यास, निबंध, आत्मकथा)
हिंदी
कहानी की उत्पत्ति और विकास
कथा-किस्सों
का इतिहास भारतीय परंपरा में बहुत पुराना है। हितोपदेश की कथाओं और बैताल पचीसी
जैसी कथाओं के माध्यम से भारतीय समाज में नीति-नैतिकता और आदर्श की शिक्षाएँ दी
जाती रही हैं। कहानी के रूप में साहित्य की जिस विधा का हम अध्ययन करते हैं, वह
पाश्चात्य साहित्य के माध्यम से हिंदी साहित्य में आई है। जिस तरह भारत की रूई
विदेश में जाती थी और वहाँ से कपड़ा बनकर भारतीय बाजारों में आया करता था, उसी तरह
भारत के कथा-किस्से विदेशों से अपने बदले हुए रूप में कहानी के तौर पर भारत आए।
हिंदी
कहानी के उद्भव और विकास में बांग्ला साहित्य का विशेष योगदान रहा है। अंग्रेजी का
साहित्य अनुवाद के रूप में बांग्ला में आया और बांग्ला से यह हिंदी में आया। आज की
हिंदी कहानी के उद्भव की शुरुआत यहीं से मानी जा सकती है। सन् 1857 ई. से भारतेंदु
युग की शुरुआत मानी जाती है। इस कालखंड में भारतेंदु हरिश्चंद्र सहित अन्य
साहित्यकार नाटकों और निबंधों के लेखन में ज्यादा सक्रिय थे। हालाँकि इस काल में
कुछ कहानियाँ लिखी गईं, मगर उन्हें हिंदी की मौलिक कहानी नहीं माना जाता है।
हिंदी
में द्विवेदी युग सन् 1900 ई. से शुरू होता है। इस कालखंड में लिखी गई रामचंद्र
शुक्ल की ‘ग्यारह वर्ष का समय’, किशोरीलाल गोस्वामी की ‘इंदुमती’ और बंग महिला की
‘दुलाईवाली’ कहानियों को हिंदी की प्रारंभिक कहानी माना जाता है। इस दौर में अकसर
रहस्य और रोमांच से भरी हुई कहानियाँ लिखी जाती थीं। इस तरह द्विवेदी युग में
हिंदी कहानी का प्रारंभिक दौर नज़र आता है।
हिंदी
कहानी के क्षेत्र में प्रेमचंद के आने के साथ ही एक नया युग शुरू होता है। इसे
प्रेमचंद युग के नाम से जाना जाता है। प्रेमचंद ने लगभग तीन सौ कहानियाँ लिखीं। इस
दौर में अंग्रेजी और बांग्ला साहित्य का प्रभाव कम होने लगा और हिंदी कहानी में
भारतीय समाज दिखने लगा। इस कालखंड में जयशंकर प्रसाद ने भारतीय संस्कृति को आधार
बनाकर कई कहानियाँ लिखीं। इस कालखंड में चंद्रधर शर्मा गुलेरी, सुदर्शन, चतुरसेन
शास्त्री, वृंदावनलाल वर्मा आदि ने कई कहानियाँ लिखीं। इस कालखंड को हिंदी कहानी
का प्रारंभिक काल (सन् 1930 ई. तक) कहा जा सकता है।
सन्
1930 से 1947 ई. तक के कालखंड को प्रेमचंदोत्तर काल या द्वितीय युग कहा जा सकता
है। इस युग में हिंदी कहानी के क्षेत्र का विकास हुआ। जैनेंद्र और इलाचंद्र जोशी
ने मनोविश्लेषणवादी कहानियाँ लिखीं। रांगेय राघव और फणीश्वरनाथ रेणु ने आंचलिक
कहानियाँ लिखीं। यशपाल ने प्रगतिवादी विचारधारा को आधार बनाकर कहानियाँ लिखीं। इस
कालखंड में यथार्थपरक-सामाजिक परंपरा, ऐतिहासिक-सांस्कृतिक परंपरा, यौनवादी
परंपरा, हास्य-रस परंपरा और साहसिक परंपरा की कहानियाँ लिखी गईं। इन परंपराओं का
विस्तार और विकास आने वाले समय में हुआ। इस कालखंड में अज्ञेय, भगवतीचरण वर्मा,
उपेंद्रनाथ अश्क, नागार्जुन, विष्णु प्रभाकर और उषादेवी मित्रा आदि कहानीकारों ने
हिंदी कहानी के विकास में योगदान दिया।
सन्
1947 ई. से वर्तमान तक के स्वातंत्र्योत्तर युग में हिंदी कहानी में अनेक वाद,
विमर्श और आंदोलनों का आगमन हुआ। इसमें नई कहानी, सचेतन कहानी, समांतर कहानी,
अ-कहानी और सक्रिय कहानी आदि धाराओं का उल्लेख किया जा सकता है। इस दौर में
कमलेश्वर, मार्कंडेय, मोहन राकेश, राजेंद्र यादव, कृष्णा सोबती, धर्मवीर भारती,
अमरकांत आदि कहानीकारों ने अपनी कहानियों के माध्यम से हिंदी कथा-साहित्य को
समृद्ध किया। स्त्री विमर्श, दलित विमर्श और आदिवासी विमर्श जैसे विमर्शों के
माध्यम से हिंदी कहानी के क्षेत्र को बहुत विस्तार मिला। हरिशंकर परसाई, रवींद्र
त्यागी और शरद जोशी जैसे कहानीकारों ने हास्य-व्यंग्य की शैली में कहानियाँ लिखकर
समय और समाज की समस्याओं को प्रकट किया।
हिंदी
कहानी की उत्पत्ति हालाँकि उपन्यास विधा से बाद में हुई थी, मगर कम समय में ही
हिंदी कहानी सबसे ज्यादा प्रचलित विधा के रूप में स्थापित हो गई। आज की हिंदी
कहानी का क्षेत्र बहुत विस्तृत है; क्योंकि कहानी में जीवन, समय और समाज से जुड़ा
कोई भी पक्ष अछूता नहीं रह गया है। हिंदी कहानी के लेखन में महिलाओं के साथ ही
अलग-अलग क्षेत्रों के लोगों का आगमन हुआ है। आज इंजीनियरिंग, पत्रकारिता, अध्ययन,
चिकित्सा और ऐसे ही दूसरे क्षेत्रों में काम करने वाले साहित्यकार भी कहानी-लेखन
में सक्रिय नजर आते हैं। इस कारण हिंदी कहानी में अनुभव और यथार्थ की व्यापकता
देखी जा सकती है। आज के कहानीकारों में मृदुला गर्ग, काशीनाथ सिंह, गोविंद मिश्र,
उदय प्रकाश, प्रभा खेतान, ज्ञान रंजन और सुधा अरोड़ा जैसे अनेक साहित्यकारों की
सक्रियता देखी जा सकती है। आज प्रवासी कहानी के रूप में प्रवासी भारतीयों की रचनाएँ
भी खूब चर्चित हो रही हैं।
इस
प्रकार कहा जा सकता है कि आज की हिंदी कहानी अपनी सामाजिक जिम्मेदारी को निभाते
हुए जीवन के अनेक पक्षों का समग्र और सटीक चित्रण कर रही है।
हिंदी
कहानी की उत्पत्ति और विकास को निम्न विभाजन के माध्यम से स्पष्ट किया जा सकता है-
(क) प्रारंभिक युग (1930 ई. तक)
(ख) द्वितीय युग (1930 से 1947 ई. तक)
मनोविश्लेषणवादी परंपरा
यथार्थपरक सामाजिक
परंपरा
प्रगतिवादी परंपरा
ऐतिहासिक-सांस्कृतिक
परंपरा
यौनवादी परंपरा
हास्य-रस की परंपरा
साहसिक परंपरा
(ग)
स्वातंत्र्योत्तर
युग (1947 ई. से वर्तमान तक)
नयी कहानी
सचेतन कहानी
समांतर कहानी
अकहानी
सक्रिय कहानी
हिंदी उपन्यास की उत्पत्ति
और विकास
आधुनिक
हिंदी गद्य में जिस उपन्यास विधा का अध्ययन किया जाता है, वह पाश्चात्य साहित्य के
माध्यम से हिंदी साहित्य में आई है। इसका मतलब यह नहीं है कि भारत में उपन्यास
जैसी किसी विधा का प्रचार ही नहीं था। मराठी साहित्य में प्रचलित ‘कादंबरी’ को
उपन्यास का ही रूप माना जा सकता है। भारतीय संस्कृति और समाज में कथा-किस्सों की
परंपरा बहुत पुरानी रही है। कथाओं के माध्यम से भारतीय समाज में नीति-नैतिकता और
आदर्श की शिक्षाएँ दी जाती रही हैं। इन्हें आधुनिक उपन्यास का पुराना रूप भी कहा
जा सकता है।
अंग्रेजी
से बांग्ला, और फिर बांग्ला से हिंदी में अनुवाद के माध्यम से उपन्यास विधा का
विकास हुआ। इस प्रकार हिंदी में उपन्यास विधा का आगमन उन्नीसवीं शती के अंतिम चरण
में हुआ। लाला श्रीनिवास दास द्वारा रचित ‘परीक्षागुरु’, भरातेंदु हरिश्चंद्र द्वारा रचित ‘पूर्ण प्रकाश और चंद्रप्रभा’ और
श्रद्धाराम फिल्लौरी द्वारा रचित ‘भाग्यवती’ आदि उपन्यासों को हिंदी के प्रारंभिक
उपन्यास माना जाता है। हिंदी उपन्यास के विकास को निम्नलिखित विभाजन के माध्यम से
समझा जा सकता है।
1.
प्रारंभिक युग (1877 ई.-
1918 ई.)
(क) सामाजिक
उपन्यास
(ख) ऐतिहासिक
उपन्यास
(ग) रोमांचक
उपन्यास
(घ) अनूदित
उपन्यास
2.
प्रौढ़ युग/ प्रेमचंद युग
(1918 ई.-1960 ई.)
(क) आदर्शपरक
सामाजिक उपन्यास
(ख) यथार्थपरक
सामाजिक उपन्यास
(ग) ऐतिहासिक
उपन्यास
(घ) व्यक्तिवादी
उपन्यास
(ङ) मनोविश्लेषणवदी
उपन्यास
(च) प्रगतिवादी
उपन्यास
(छ) आंचलिक
उपन्यास
(ज) प्रयोगशील
उपन्यास
3.
साठोत्तरी उपन्यास/
प्रेमचंदोत्तर युग (1960 ई. से वर्तमान तक)
(क) व्यक्ति-चेतना
से प्रेरित उपन्यास
(ख) समाज-चेतना
से प्रेरित उपन्यास
(ग) राजनीतिक-चेतना से प्रेरित उपन्यास
(घ) सांस्कृतिक-चेतना से प्रेरित उपन्यास
हिंदी
उपन्यासों के प्रारंभिक युग (सन् 1877ई. से 1918 ई. तक) में सामाजिक समस्याओं को
प्रकट करने वाले सामाजिक उपन्यास लिखे गए। इसी प्रकार ऐतिहासिक प्रसंगों और घटनाओं
को लेकर ऐतिहासिक उपन्यास लिखे गए। इस कालखंड में रोमांचक-घटना प्रधान उपन्यास
बहुत प्रसिद्ध हुए। इसमें गोपालराम गहमरी के जासूसी उपन्यासों और देवकीनंदन खत्री
के तिलिस्मी-ऐयारी से भरे उपन्यासों का नाम प्रमुख रूप से आता है। देवकीनंदन खत्री
के प्रसिद्ध उपन्यास ‘चंद्रकांता संतति’ को पढ़ने के लिए कई लोगों ने हिंदी भी
सीखी थी। इसके साथ ही किशोरीलाल गोस्वामी के रहस्य-रोमांचपूर्ण उपन्यासों का नाम
भी आता है। इन उपन्यासों ने एक ओर हिंदी में उपन्यास विधा को स्थापित करने का काम
किया, वहीं दूसरी ओर हिंदी के प्रचार-प्रसार में भी योगदान दिया। इस कालखंड में
अंग्रेजी और बांग्ला से अनूदित उपन्यास भी प्रसिद्ध हुए।
हिंदी
उपन्यास के प्रौढ़ युग (1918 ई. से 1960 ई. तक) की शुरुआत प्रेमचंद के आगमन के साथ
होती है। प्रेमचंद ने आदर्शपरक सामाजिक उपन्यास लिखकर हिंदी उपन्यास विधा को समय
और समाज के साथ जोड़ने का काम किया। समाज के सच्चे यथार्थ को प्रस्तुत करने के लिए
प्रेमचंद की परंपरा से अलग यथार्थपरक सामाजिक उपन्यासों के लेखन की शुरुआत आचार्य
चतुरसेन शास्त्री, पांडेय बेचन शर्मा उग्र और सूर्यकांत त्रिपाठी निराला आदि
उपन्यासकारों के साथ आगे बढ़ती है। किशोरीलाल गोस्वामी के साथ शुरू होने वाली
ऐतिहासिक उपन्यासों के लेखन की परंपरा इस कालखंड में मजबूत होती है। राहुल
सांकृत्यायन, वृंदावनलाल वर्मा, रांगेय राघव आदि उपन्यासकारों ने ऐतिहासिक
उपन्यासों की परंपरा को आगे बढ़ाने का काम किया। जयशंकर प्रसाद, उषादेवी मित्रा,
रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’ और भगवतीचरण वर्मा आदि उपन्यासकारों ने व्यक्तिवादी उपन्यासों
की परंपरा को आगे बढ़ाया।
मनोविज्ञान
और मनोविश्लेषण के सिद्धातों पर आधारित मनोविश्लेषणवादी उपन्यासों की परंपरा
जैनेंद्र, इलाचंद्र जोशी, अज्ञेय और देवराज आदि उपन्यासकारों के माध्यम से विकसित
होती है। प्रगतिवादी विचारधारा के साथ प्रगतिवादी उपन्यासों की परंपरा का विकास यशपाल
और नागार्जुन जैसे उपन्यासकारों के साथ विकसित होती है। आंचलिक उपन्यासों के लेखन
की परंपरा में फणीश्वरनाथ रेणु, शैलेष मटियानी और देवेंद्र सत्यार्थी का नाम
प्रमुख रूप से आता है। धर्मवीर भारती, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना और निर्मल वर्मा को
प्रगतिशील उपन्यासों की परंपरा के विस्तार के लिए जाना जाता है।
हिंदी
उपन्यास के विकासक्रम में साठोत्तरी उपन्यास (सन् 1960 ई. से वर्तमान तक) कई नवीन
प्रवृत्तियों के साथ हिंदी उपन्यास विधा को समृद्ध करते हैं। इस कालखंड में
व्यक्ति की अपनी समस्याओं और चिंताओं आदि को प्रस्तुत करने वाले व्यक्ति-चेतना से
प्रेरित उपन्यास लिखे गए। समाज की समस्याओं और समाज के जीवन की जटिलताओं-विषमताओं
को लेकर समाज-चेतना से अनुप्राणित उपन्यास लिखे गए। इसी प्रकार राजनीति में पनपती
विकृतियों-बुराइयों और राजनीतिक विचारधाराओं के संघर्षों को लेकर राजनीतिक-चेतना
से प्रेरित उपन्यास और इसी प्रकार सांस्कृतिक चेतना से प्रेरित उपन्यास लिखे गए।
इस
प्रकार हिंदी उपन्यासों के प्रौढ़ युग में उपन्यासों के विषय का विस्तार होता है
और साठोत्तरी उपन्यासों में इन विषयों के साथ समय और समाज का यथार्थ जुड़ जाता है।
स्त्री विमर्श, दलित विमर्श और ऐसे अनेक वाद-विमर्श के साथ हिंदी उपन्यास विधा समृद्ध
होती है। आज हिंदी उपन्यास लेखन के क्षेत्र में महिलाएँ, युवा, वैज्ञानिक, पत्रकार
और समाज के अन्य क्षेत्रों से आए हुए लेखक-लेखिकाएँ सक्रिय हैं। इस कारण हिंदी
उपन्यास विधा का साहित्य में विशेष स्थान है।
हिंदी
नाटक की उत्पत्ति और विकास
रंगमंच
पर अभिनय के लिए गद्य-पद्य मिश्रित या गद्य रचना को नाटक या रूपक कहा जाता है। भारतीय
साहित्य में नाट्य विधा का गौरवपूर्ण अतीत रहा है। भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में
हमें भारतीय नाट्य परंपरा के दर्शन होते हैं। हिंदी नाटकों का विकास भी इसी परंपरा
से हुआ है। भारतीय परंपरा में प्रसिद्ध रहे- 1. मैथिली नाटक, 2. रासलीला और 3.
पद्यबद्ध नाटक ऐसे आधार हैं, जिन्होंने आधुनिक हिंदी नाटकों के विकास की जमीन
तैयार की है। हिंदी नाटकों की उत्पत्ति और विकास के क्रम को निम्नलिखित विभाजन
द्वारा समझा जा सकता है।
1. भारतेंदु युग (1857 ई. से
1900 ई. तक)
(क) पौराणिक नाटक
(ख) ऐतिहासिक नाटक
(ग) काल्पनिक नाटक
(घ) अनूदित नाटक
2. प्रसाद युग (1900 ई. से
1930 ई. तक)
(क) ऐतिहासिक नाटक
(ख) पौराणिक नाटक
(ग) काल्पनिक नाटक
(घ) अनूदित नाटक
3. प्रसादोत्तर युग (1930 ई.
से 1947 ई. तक)
(क) ऐतिहासिक नाटक
(ख) पौराणिक नाटक
(ग) कल्पनामिश्रित नाटक
समस्याप्रधान नाटक
भावप्रधान नाटक
प्रतीकात्मक नाटक
4. स्वातंत्र्योत्तर युग
(1947 ई. से वर्तमान तक)
(क) सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना
से प्रेरित नाटक
(ख) व्यक्तिवादी-चेतना से
प्रेरित नाटक
(ग)
राजनीतिक-चेतना से प्रेरित नाटक
संस्कृत
नाट्य परंपरा के बाद भारतेंदु युग तक नाट्य विधा का विस्तार और विकास ज्यादा नहीं
रहा है। इसके पीछे कई सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक कारण रहे हैं। भारतेंदु युग
(1857 ई. से 1900 ई. तक) में पारसी रंगमंच की परंपरा से प्रेरणा लेकर भारतेंदु ने
हिंदी नाटकों की परंपरा विकसित की। इसमें पौराणिक पात्रों और प्रसंगों को लेकर
पौराणिक नाटक लिखे गए और ऐतिहासिक पात्रों व घटनाओं को लेकर ऐतिहासिक नाटक लिखे
गए। सामयिक विषयों और सामाजिक समस्याओं को लेकर काल्पनिक नाटकों की रचना भी इस
कालखंड में हुई। इस कालखंड की बड़ी विशेषता यह थी, कि नाटकों का लेखन और उनका मंचन
देश की आजादी के आंदोलन का महत्त्वपूर्ण अंग बन गया था। बड़े से बड़े विषय को बहुत
रोचक तरीके से समाज के सामने रख पाना नाटकों के मंचन से ही संभव हुआ था।
जयशंकर
प्रसाद द्वारा हिंदी नाटकों के लिए किये गए प्रयासों को देखते हुए सन् 1900 ई. से
1930 ई. तक के कालखंड को प्रसाद युग कहा जाता है। इस युग में पूर्ववर्ती कालखंड की
तरह ऐतिहासिक, पौराणिक, काल्पनिक और अनूदित नाटकों की परपंरा दिखाई पड़ती है। जयशंकर
प्रसाद द्वारा भारतीय सांस्कृतिक गौरव को स्थापित करने के लिए चंद्रगुप्त, अजातशत्रु,
कल्याणी परिणय जैसे नाटक लिखे गए। इस कालखंड में प्रेमचंद, बद्रीनाथ भट्ट और
सुदर्शन जैसे नाटककारों ने श्रेष्ठ नाटक लिखे। इस कालखंड के कल्पनामिश्रित नाटकों
में समाज की बुराइयों को प्रकट करने और समाज को नसीहत देने का काम खास तौर से किया
गया।
प्रसादोत्तर
युग (1930 ई. से 1947 ई. तक) में ऐतिहासिक और पौराणिक नाटकों की परंपरा चलती हुई
दिखाई पड़ती है। हिंदी नाटकों का समाज से जुड़ाव कल्पनामिश्रित नाटकों में खास तौर
से नजर आता है। इसमें समस्याप्रधान, भावप्रधान और प्रतीकात्मक नाटक लिखे गए। देश
की आजादी के आंदोलन सहित समाज की समस्याओं का चित्रण इन नाटकों में होता है। हरिकृष्ण
प्रेमी, गोविंदवल्लभ पंत, लक्ष्मीनारायण मिश्र, सेठ गोविंददास और उपेंद्रनाथ अश्क
आदि इस कालखंड के प्रमुख नाटककार माने जाते हैं।
स्वातंत्र्योत्तर
युग (1947 ई. से वर्तमान तक) में देश की आजादी के साथ पैदा हुई समस्याओं ने हिंदी
नाटकों को नई भूमिका प्रदान की। इस कालखंड में सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना से
प्रेरित, व्यक्तिवादी-चेतना से प्रेरित और राजनीतिक-चेतना से प्रेरित नाटकों का
लेखन हुआ। इन नाटकों में देश की अनेक सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक समस्याओं
को प्रकट करने का काम हुआ। इस दौर के प्रमुख नाटककारों में मोहन राकेश, नरेश मेहता,
जगदीशचंद्र माथुर और विष्णु प्रभाकर आदि का नाम लिया जा सकता है।
नाटकों
की सफलता और उनका प्रभाव मंचन में ही प्रकट होता है। आज की भागदौड़ भरी जिंदगी में
रंगमंच के लिए लोगों के पास समय की कमी होती है। इसके बावजूद आज रेडियो रूपक और
नुक्कड़ नाटक के रूप में हिंदी नाटकों की परंपरा अपना प्रमुख स्थान बनाए हुए है।
हिंदी
निबंध की उत्पत्ति और विकास
हिंदी
गद्य में निबंध एकदम अलग किस्म की विधा है। इसमें लेखक किसी विषय या वस्तु के
संबंध में अपने विचारों को साहित्यिक ढंग से प्रस्तुत करता है। निबंध का संबंध
केवल साहित्य से ही नहीं होता, बल्कि इसमें विज्ञान, दर्शन, इतिहास आदि विषय भी
आते हैं। इस प्रकार निबंध की विषयवस्तु के आधार पर निबंध के प्रकार का पता लगता
है।
हिंदी
गद्य में निबंध विधा की शुरुआत आधुनिक काल से होती है, क्योंकि इसके पहले गद्य
लिखने की सशक्त परंपरा नहीं थी। हिंदी के निबंधों का सीधा संबंध देश की आजादी के
आंदोलन से भी रहा है, क्योंकि सन् 1857 के बाद हिंदी के आधुनिक काल में लिखे गए निबंधों
के विषय नवजागरण से जुड़े होते थे। राजा शिवप्रसाद ‘सितारे हिंद’ द्वारा लिखे गए
‘राजा भोज का सपना’ को हिंदी का पहला निबंध माना जाता है। भारतेंदु हरिश्चंद्र और
उनकी मंडली के लेखकों द्वारा हिंदी निबंध की परंपरा को विधिवत् स्थापित किया गया।
हिंदी निबंध की उत्पत्ति और विकास को निम्न विभाजन द्वारा समझा जा सकता है।
1. भारतेंदु युग (1857 ई. से
1900 ई. तक)
2. द्विवेदी युग (1900 ई. से 1920
ई. तक)
3. शुक्ल युग (1920 ई. से
1940 ई. तक)
4. शुक्लोत्तर युग (1940 ई.
से वर्तमान तक)
हिंदी
निबंध के प्रारंभिक युग में भारतेंदु हरिश्चंद्र और उनकी मंडली के निबंधकारों,
जैसे- बालकृष्ण भट्ट, प्रतापनारायण मिश्र, बदरीनारायण चौधरी प्रेमघन और लाला
श्रीनिवास दास आदि ने हिंदी निबंध की पंरपरा को विधिवत् स्थापित किया। इन
निबंधकारों ने उस समय की धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक समस्याओं पर निबंध लिखे। इन
निबंधों में व्यंग्य के साथ असरदार तरीके से बात कही जाती थी। पाठकों का ज्ञानवर्धन
करने और उन्हें सोचने के लिए मजबूर कर देने में भी ये निबंध असरदार सिद्ध होते
हैं।
हिंदी
निबंध का दूसरा काल आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के साथ शुरू होता है। द्विवेदी
जी स्वयं अच्छे निबंधकार थे। वे सरस्वती पत्रिका के संपादक थे और पत्रिका के
माध्यम से लेखकों को प्रोत्साहित भी करते थे। इस कारण हिंदी निबंधों में सन् 1900
ई. से 1920 ई. तक के कालखंड को द्विवेदी युग कहा जाता है। सरदार पूर्णसिंह,
श्यामसुंदर दास, पद्मसिंह शर्मा, शिवपूजन सहाय, चंद्रधर शर्मा गुलेरी, कृष्ण बलदेव
वर्मा और गणेशशंकर विद्यार्थी आदि इस कालखंड के प्रमुख निबंधकार हैं। इस कालखंड
में लिखे गए निबंध प्रायः विचारप्रधान थे। इनमें व्याकरण और भाषा की शुद्धता पर
ज्यादा ध्यान दिया गया था। इन निबंधों में पूर्ववर्ती कालखंड की तरह सामाजिक
समस्याओं आदि पर ज्यादा नहीं लिखा गया।
हिंदी
निबंध में तीसरा युग आचार्य रामचंद्र शुक्ल के साथ शुरू होता है। इसे शुक्ल युग
(1920 ई. से 1940 ई. तक) कहा जाता है। शुक्ल जी भी अच्छे निबंधकार थे। ‘चिंतामणि’
उनका सबसे प्रसिद्ध निबंध संग्रह है। डॉ. गुलाबराय, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी,
सियारामशरण गुप्त, हरिभाऊ उपाध्याय और सूर्यकांत त्रिपाठी निराला आदि इस कालखंड के
प्रमुख निबंधकार हैं। इस कालखंड के निबंधों में निजी विचारों के साथ ही सामाजिक
समस्याओं को गंभीरतापूर्वक और बारीकी के साथ प्रकट किया गया है। यह युग अपने
पूर्ववर्ती युग की अपेक्षा अधिक प्रौढ़ और समृद्ध माना जाता है।
शुक्लोत्तर
युग (1940 ई. से वर्तमान तक) के शुरुआती कालखंड में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी,
आचार्य नंददुलारे वाजपेयी, डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल आदि निबंधकारों ने श्रेष्ठ
साहित्यिक और सांस्कृतिक निबंध लिखे। बाद के वर्षों में डॉ. नगेंद्र, जैनेंद्र
कुमार, प्रभाकर माचवे, विद्यानिवास मिश्र, अज्ञेय और डॉ. धर्मवीर भारती आदि
निबंधकारों ने हिंदी निबंधों को समृद्ध किया। इस दौर में हास्य-व्यंग्य प्रधान
निबंधों के साथ ही ललित निबंधों की परंपरा भी विकसित हुई। इन निबंधों में विचारों
की सरसता के साथ ही गंभीरता और सहजता देखी जा सकती है।
इस
प्रकार हिंदी निबंध-साहित्य ने थोड़े समय में ही पर्याप्त प्रगति की है। आज का
हिंदी निबंधकार अपनी सामाजिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक जिम्मेदारी को भली-भाँति
निभा रहा है।
हिंदी आत्मकथा की उत्पत्ति
और विकास
हिंदी
में आत्मकथा लिखने की परंपरा बहुत पुरानी नहीं है। इसका विकास आधुनिक काल में हुआ
है। अगर अतीत में देखें, तो पता चलता है कि बनारसीदास जैन ने ‘अर्ध कथानक’ शीर्षक
से 17वीं शताब्दी में एक आत्मकथा लिखी थी। यह आत्मकथा पद्य शैली में थी। इसमें
लेखक ने अपने जीवन का संपूर्ण वर्णन साफगोई के साथ किया है। इस आत्मकथा को हिंदी
की पहली आत्मकथा माना जा सकता है।
हिंदी
गद्य में आत्मकथा की शुरुआत सामान्य रूप से भारतेंदु हरिश्चंद्र के साथ होती है।
उन्होंने ‘कुछ आपबीती कुछ जगबीती’ नाम से अपनी आत्मकथा लिखने की शुरुआत की थी। इस
तरह से हिंदी गद्य में आत्मकथा लिखने का यह पहला प्रयोग माना जा सकता है। भारतेंदु
हरिश्चंद्र की इस परंपरा को आगे बढ़ाने का काम अंबिकादत्त व्यास, राधाचरण
गोस्वामी, प्रतापनारायण मिश्र और श्रीधर पाठक ने किया। हालाँकि इन सभी
आत्मकथाकारों की रचनाएँ पूर्ण नहीं हो सकीं, मगर इन्हें हिंदी आत्मकथा के विकास के
लिए महत्त्वपूर्ण कहा जा सकता है। स्वामी श्रद्धानंद द्वारा लिखी गई आत्मकथा
‘कल्याण मार्ग’ को पूर्ण आत्मकथा कहा जा सकता है।
हिंदी में अनेक उच्चकोटि की आत्मकथाओं का अनुवाद
हुआ है। इसमें महात्मा गांधी की ‘आत्मकथा’, जवाहरलाल नेहरू की ‘मेरी कहानी’ और
कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी द्वारा रचित आत्मकथा का अनुवाद ‘आधे रास्ते’ आदि प्रमुख
हैं। हिंदी में अनूदित इन आत्मकथाओं ने आत्मकथा-लेखन को प्रोत्साहित करने का काम
किया।
आत्मकथा
और संस्मरण लिखने के लिए प्रेरित करने का सबसे बड़ा काम प्रेमचंद ने किया।
उन्होंने ‘हंस’ पत्रिका का आत्मकथा विशेषांक सन् 1932 में प्रकाशित किया था। इसमें
कई लेखकों के आत्मकथ्य को प्रकाशित किया गया। इस प्रयास के बाद कई साहित्यकार,
समाजसेवी और राजनीतिज्ञ आत्मकथा लेखन में सक्रिय हुए। इसमें राहुल सांकृत्यायन की ‘मेरी
जीवन यात्रा’, डॉ. राजेंद्र प्रसाद की ‘आत्मकथा’, मूलचंद्र अग्रवाल की ‘एक पत्रकार
की आत्मकथा’ और डॉ. हरिवंशराय बच्चन की चार भागों में प्रकाशित आत्मकथा आदि प्रमुख
हैं।
अनेक स्वाधीनता संग्राम सेनानियों और
क्रांतिकारियों ने भी अपनी आत्मकथाएँ लिखी हैं। इन आत्मकथाओं में एक व्यक्ति से
लगाकर समाज और राष्ट्र के स्तर पर अनेक महत्त्वपूर्ण जानकारियाँ मिलती हैं। इस
प्रकार ये आत्मकथाएँ हिंदी साहित्य की अमूल्य धरोहर हैं। आधुनिक काल में भी अनेक
महत्त्वपूर्ण आत्मकथाएँ लिखी गई हैं। हिंदी में अनूदित आत्मकथाओं का भी विशाल
भंडार है। इस प्रकार हिंदी गद्य की एक प्रमुख विधा के रूप में हिंदी आत्मकथा की
गौरवपूर्ण विकास-यात्रा हमें देखने को मिलती है।